Friday, December 2, 2011
संदीप प्रसाद की कविताएं
इंतजार-1
कल रात अँधेरे में
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संदीप प्रसाद
आदर्श विद्यामंदिर हाई स्कूल (एच.एस.),
बानरहाट, जलपाईगुड़ी
मो.- 9333545942/ 9126002808
|
बरगद के पास वाली
ढह रही दीवाल पर बड़ी देर तक
बैठी रही बिल्ली
और आती रही बड़ी देर तक
उसकी अजीब सी आवाज़.....
उसकी आँखे चमकती रही
ठीक वैसे ही जैसे रोज रात को
चमकते हैं मेरे दीवाल घड़ी के
अक्षर;
बड़ी देर तक बैठी रही बिल्ली
पर बड़ी देर तक खड़ी रही उसकी
पूंछ-
क्या कुछ होने वाला है?
मालूम नहीं क्यों
आज सुबह से
हवा बड़ी तेज है मगर फिर भी
तडफड़ा रहा है- पूरा का पूरा माहौल
पत्ते हिल रहे हैं मगर कोई
शब्द नहीं है
लोग चीख रहे हैं मगर आवाज़
नहीं है
हाँ ज़रूर कुछ होने वाला है
क्योंकि
आज की शाम
आकाश की आँखें लाल हैं
मेघों के बीच खुसफुसाहट है
पक्षियों के पंखो में अजीब सी
तड़प है
मैंने सुना दो गिलाहरियों को
आपस में
फुसफुसाते हुए कि
चाणक्य का दिया हुआ मौर्य
खड्ग
और खेत से आये हुए फावड़ा, खुरपी और हँसिया
एक ही झोपड़ी में सुस्ता रहे
हैं
साथिओं !
तैयार रहो !...
इंतज़ार-2
इतना वक्त नहीं जो
बतिया सकूँ उस सपने पर जिसमें
खुशियाँ बराबर-बराबर हों सबकी अँजुली में।
सरकारी बसों के चक्कों से बचते-बचते
डायरी के पन्नों के बीच
कतरा भर वक्त
कि जिसमें कंस्ट्रक्शन लेबरों के घाम से
तर-ब-तर बनियानों की महक हो,
बहुत मुश्किल है
दरख्वाश्तों के बीच एक ऐसा पन्ना खोजना
जिसमें कविता लिखे जाने की गुंजाइश
के लिए जगह हो।
सपनों को तकिये से दबाकर
वक्त है
फुटपाथ पर भुट्टा भुनती बुढ़िया
के कच्चे चूल्हे को
पक्की गुमती दिलाने का।
कम से कम इतनी देर तो
कविता भी इंतज़ार कर ही लेगी !
वह और वे
तंग आ कर एक दिन उन्होंने
काट दी उसकी टाँग
वह खूब छटपटाया
फिर उसने सीख लिया जीना
टाँग के बगैर
मगर बंद नहीं हुई उसकी चीख।
वे फिर आए और
काट दिये उसके हाथ
वह खूब कलपा,
लेकिन फिर सिरजा ली अपने भीतर
हाथ के बगैर जीने की चाहत-
मगर बंद नहीं हुई उसकी चीख।
वे आए फिर एक बार
और काट दी उसकी ज़ुबान
वह खूब बलबलाया,
बढ़ती रही उसकी बेज़ुबान जिंदगी-
मगर बंद नहीं हुई उसकी चीख,
बेज़ुबान गलफड़ चीख ।
उन्होंने तय किया फिर एक बार
कि अबकी वे काट जाएंगे
उसका गला ।
चूहे
चूहे अब चूहे नहीं रहें ;
वे बढ़ा रहे हैं अपनी देश की सरहद ।
जो भी था सुरक्षित और अछूता
वहाँ छेड़ दी है मुहिम
देश काल से परे
एक शाश्वत घुसपैठ की ।
वे घुसते रहे हैं
हमारे खेतों और अन्न भण्डारों में
और हमें कर दिया मजबूर
उनकी जूठन पर पालने को अपनी भूख ।
चूहे घुस रहे हैं अस्पताल में
और कुतर रहे हैं दवावों के खोल,
डाल रहे हैं उनमें ज़हर
और फैला रहे हैं अपनी गिरफ़्त
हमारी तंदरुस्ती और जिंदादिली पर ।
चूहे घुस रहे हैं
हमारे माध्यमों और सूचनाओं में
कर रहें हैं कतरब्योंत हमारी जानकारियों पर
ऐसा ही रहा तो
वे जगह-जगह लगा देंगे सेंध
हमारे इतिहास में
और उसमें घुस कर वे
दौड़-दौड़ खेलेंगे-
सदी के इस पार से उस पार तक।
मुझे डर है कि कहीं चूहे
हमारे विचारों में न घुस जाएं
और कुतर न दें हमारे सपने।
तुम्हारे संदर्भ में
‘तड़प’-
एक भूली पंक्ति को
याद करते हुए
खाने के निवाले का ग्रास ।
‘परिचय’-
कड़ियों पर लाद कर अपना बोझ
साइकिल के पिछले चक्के को खीचना और
अगले चक्के का डुगरना, यूँ-ही ।
‘चाहत’-
भरभूज की कड़ाही में पक रहे
मकई के दाने
और अनवरत लघु प्रस्फुटन
और फिर अनवरत प्रवर्तन
धवल-गुच्छल-सरल ।
‘नाराजगी’-
जेठ की दोपहर में
नींबू का शरबत पीते हुए
मड़ई में सुस्ताते खेतिहर के
मुख से निकली चुस्की ।
‘प्रेम’-
इमामबाड़े की मीनार पर चढ़ देखना
हुगली के ओसारे में उगे
गणित-रहित ताड़-गाछों के
पुलिनों की चादर ।
‘तुम’-
मेरे होने का मतलब ।
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